निस्तब्ध प्रकृति

 

अंतः करण शुद्ध है उसका पूर्ण रूप से   सब कुछ  सहने का  सामर्थ है  यही उसके जीवन का अर्थ है
‌निस्तब्ध मूक दर्शक बनी  परन्तु समझती है सबकुछ
‌सोचती होगी क्या अर्थ कुछ कहने है

‌अगर प्रकृति भी  निष्कासित कर दे गर   हमारे द्वारा फैलाए गए अपशिष्ट को?
‌क्या करेंगे?
बस निष्ठुर नही है इसका प्रमाण  निरंतर देती रहती है
हमारे द्वार  हृदय को आहत कर देने वाले
कृत्यों को सहती रहती है 

किंतु  सच है जो सबकुछ समाहित करें  उसकी कद्र नहीं की जाती
और अक्सर मोतियों को समुंदर की राह दिखा दी जाती
और प्रकृति फिर भी फिर भी अपनी धुन में है
चलो ठीक ही है वो सोचती है 
सबकुछ उसको भाया
निश्चिंत है एकदम
नही  सोचती क्या खोया क्या पाया
  दीक्षा

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