💚 क्या आपने कभी सोचा है कि पेड़, पहाड़, नदी और आकाश हमें बिना बोले क्या सिखा जाते हैं? इस कविता में, हम प्रकृति के मौन संदेशों को महसूस करेंगे – जो हमें माफ़ करना, सहनशीलता, और निस्वार्थ प्रेम जैसे जीवन मूल्य सिखाते हैं।💚 एक पेड़ खड़ा था मेरे घर के आंगन में, सभी के लिए जगह है उसके दामन में। बहुत सारे पक्षियों का उसकी डालियों पर बसेरा होता है, उसके नीचे कुछ गायों का भी दिन और सवेरा होता है। कुछ बच्चे उसके नीचे खेला करते हैं, और कुछ तो उसकी डालियों से झूला करते हैं। पेड़ भी लहराता रहता ठंडी हवा में, जैसे कोई मौन गीत गा रहा हो सजीवता की धारा में। अगर आपको यह कविता पसंद आई हो, तो कमेंट में अपने विचार ज़रूर बताएं। शेयर करें इस खूबसूरत संदेश को अपने दोस्तों के साथ और जुड़ें हमारे साथ इस प्राकृतिक प्रेम यात्रा में।
अंतः करण शुद्ध है उसका पूर्ण रूप से सब कुछ सहने का सामर्थ है यही उसके जीवन का अर्थ है निस्तब्ध मूक दर्शक बनी परन्तु समझती है सबकुछ सोचती होगी क्या अर्थ कुछ कहने है अगर प्रकृति भी निष्कासित कर दे गर हमारे द्वारा फैलाए गए अपशिष्ट को? क्या करेंगे? बस निष्ठुर नही है इसका प्रमाण निरंतर देती रहती है हमारे द्वार हृदय को आहत कर देने वाले कृत्यों को सहती रहती है किंतु सच है जो सबकुछ समाहित करें उसकी कद्र नहीं की जाती और अक्सर मोतियों को समुंदर की राह दिखा दी जाती और प्रकृति फिर भी फिर भी अपनी धुन में है चलो ठीक ही है वो सोचती है सबकुछ उसको भाया निश्चिंत है एकदम नही सोचती क्या खोया क्या पाया दीक्षा
क्या हमने कभी सोचा है कि असली सुख कहाँ छुपा है? पेड़ों की छाँव में बैठने से जो अथाह सुख और शांति मिलती है, वह किसी महल में रहकर भी नहीं मिल सकती। नदियों के पास की शीतलता, कृत्रिम उपकरणों से उत्पन्न ठंडक से कहीं अधिक सुकून देती है। पक्षियों का मधुर स्वर किसी मनमोहक संगीत से कम नहीं होता। वृक्षों से अपने हाथों से तोड़कर खाए गए फल किसी महंगे स्वादिष्ट भोजन से भी अधिक संतोष देते हैं। आकाश में टिमटिमाते तारे हमारे द्वारा बनाए गए प्रकाश से कहीं अधिक सुंदर प्रतीत होते हैं। कभी-कभी आकाश में उभरता इंद्रधनुष किसी भी मनोरम दृश्य को पीछे छोड़ देता है। हमारे आसपास फुदकते पक्षी, और कहीं दूर से आती गायों की आवाज़ें किसी भी प्रकार के झगड़ों की आवाज़ों से बेहतर लगती हैं। प्रकृति ने हमें सब कुछ वास्तविक और नि:स्वार्थ रूप से दिया है, फिर भी हम कृत्रिमता की ओर भाग रहे हैं। हम वह खो रहे हैं जो हमारे पास पहले से मौजूद है, और उस मिथ्या सुख की ओर दौड़ रहे हैं जो मृगतृष्णा के समान है। अगर आपको यह लेख पसंद आया हो तो कृपया शेयर करें और कमेंट में अपने विचार जरूर बताएं।
Comments
Post a Comment